Home » Fiction » ग़बन

ग़बन (Paperback)



  (not rated yet, be the first to write a review)

ISBN-13: 9788122205121
Language: Hindi

This book is available in following formats:
Format Availability Status Price
Paperback In stock
195.00
$ 3.02

Imprint: Orient Publishing

Publication Date: 07 Jan, 2013

Pages Count: 296 Pages

Weight: 305.00 Grams

Dimensions: 5.50 x 8.50 Inches


Subject Categories:

About the Book:

उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ‘ग़बन’ उपन्यास का प्रथम संस्करण स्वयं प्रेमचन्द की प्रेस तथा प्रकाशन-संस्थान सरस्वती प्रेस, बनारस से फरवरी, 1931, मे प्रकाशित हुआ।

पूर्ण विश्वास के साथ यह भी कहा जा सकता है कि स्वयं प्रेमचन्द ने ही इसका उर्दू अनुवाद किया और इसका प्रथम संस्करण 1933 में लाजपतराय एंड संस, लाहौर, ने प्रकाशित किया।

निर्मला के बाद हिन्दी साहित्य के यथार्थवाद में ग़बन एक और आगे बढ़ा हुआ कदम है। वह जीवन की असलियत की छानबीन गहराई से करता है, भ्रम के परदे उठाता है, नये रास्ते ढूंढ़ने के लिय नयी प्रेरणा देता है। एक साधारण लेखक के हाथों में (ग़बन की कहानी) गहनों से प्रेम करने का बुरा नतीजा दिखाने वाली एक मामूली उपदेशमूलक कहानी बन जाती, लेकिन प्रेमचन्द ने उसे नारी समस्या का व्यापक चित्र बनाने के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में पहली बार देश की स्वाधीनता की समस्या से जोड़ दिया। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिय यह एक नयी दिशा की तरह संकेत था।

डॉ. रामविलास शर्मा साहित्यालोचक, भाषाविद्, कवि

प्रेमचन्द की कलम में जादू था। जिस वस्तु का ज़िक्र उनहोंने किया उसका चित्र आंखों के सामने खिंच गया।

उपेंद्रनाथ

प्रेमचन्द (31 जुलाई, 1880 — 8 अक्तूबर 1936) के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचन्द व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट के नाम से अभिहित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। प्रेमचन्द ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचन्द ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है।

 

In stock


195.00

$ 3.02